24.8.16

goverdhan parvat & facts in hindi

महाभारत काल की ये निशानी आज भी पूरी करती है भक्तों की मनोकामनाएं


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गिरीराजजी (गोवर्धन पर्वत) का मंदिर।

महाभारत में श्रीकृष्ण ने गोकुल-वृंदावन के लोगों को गोवर्धन पर्वत की पूजा करने के लिए प्रेरित किया था। तभी से भक्तों द्वारा इस पर्वत की पूजा की जा रही है। इस पर्वत को तिल-तिल कम होने का शाप एक ऋषि ने दिया था, इसी कारण महाभारत काल की ये निशानी घटती जा रही है।

आज भी ऐसी मान्यता है कि मथुरा के पास स्थित गोवर्धन पर्वत की पूजा करने वाले भक्तों की सभी मनोकमनाएं पूर्ण होती हैं और यहां से कोई भी खाली नहीं लौटता है। इसी वजह से यहां हमेशा ही भक्तों का तांता लगा रहता है। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा का विशेष महत्व है। जन्माष्टमी पर बड़ी संख्या में भक्त यहां पहुंचते हैं।

गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई आज काफी कम दिखाई देती है, लेकिन हजारों साल पहले यह बहुत ऊंचा और विशाल पर्वत था। इस पर्वत की ऊंचाई लगातार घट रही है, इस संबंध में शास्त्रों एक कथा बताई गई है। इस कथा के अनुसार गोवर्धन पर्वत को तिल-तिल करके घटने के लिए एक ऋषि ने श्राप दिया है।

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श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को भगवान का रूप बताया है और उसी की पूजा करने के लिए सभी को प्रेरित किया था। आज भी गोवर्धन पर्वत चमत्कारी है और वहां जाने वाले हर व्यक्ति की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करने वाले हर व्यक्ति को जीवन में कभी भी पैसों की कमी नहीं होती है।

ऐसा माना जाता है कि महाभारत काल में गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई करीब 30 हजार मीटर थी। जबकि वर्तमान में यह पर्वत करीब 30 मीटर ऊंचा ही रह गया है। गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई लगातार घट रही है। इस संबंध में गर्गसंहिता में एक कथा बताई गई है।

कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लेने के पूर्व राधाजी से भी साथ चलने का निवेदन किया। इस पर राधाजी ने कहा कि मेरा मन पृथ्वी पर वृंदावन, यमुना और गोवर्धन पर्वत के बिना नहीं लगेगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने अपने हृदय की ओर दृष्टि डाली जिससे एक तेज निकल कर रासभूमि पर जा गिरा। यही तेज पर्वत के रूप में परिवर्तित हो गया।

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शास्त्रों के अनुसार यह पर्वत रत्नमय, झरनों, कदम्ब आदि वृक्षों एवं कुञ्जों से सुशोभित था एवं कई अन्य सामग्री भी इसमें उपलब्ध थी। इसे देखकर राधाजी प्रसन्न हुई तथा श्रीकृष्ण के साथ उन्होंने भी पृथ्वी पर अवतार धारण किया।

एक अन्य कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से शाल्मलीद्वीप में द्रोणाचल की पत्नी के गर्भ से गोवर्धन का जन्म हुआ, भगवान के जानु से वृंदावन एवं वामस्कंध से यमुनाजी का प्राक्टय हुआ। गोवर्धन को भगवान का रूप जानकर ही सुमेरु, हिमालय एवं अन्य पर्वतों ने उसकी पूजा कर गिरिराज बनाकर स्तवन किया।

एक समय तीर्थयात्रा करते हुए पुलस्त्यजी ऋषि गोवर्धन पर्वत के समीप पहुंचे। पर्वत की सुंदरता देखकर ऋषि मंत्रमुग्ध हो गए तथा द्रोणाचल पर्वत से निवेदन किया कि मैं काशी में रहता हूं। आप अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दीजिए, मैं उसे काशी में स्थापित कर वहीं रहकर पूजन करुंगा।

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द्रोणाचल पुत्र के वियोग से व्यथीत हुए लेकिन गोवर्धन पर्वत ने कहा मैं आपके साथ चलुंगा किंतु मेरी एक शर्त है। आप मुझे जहां रख देंगे मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा। पुलस्त्यजी ने गोवर्धन की यह बात मान ली। गोवर्धन ने ऋषि से कहा कि मैं दो योजन ऊंचा एवं पांच योजन चौड़ा हूं। आप मुझे काशी कैसे ले जाएंगे?

तब पुलस्त्य ऋषि ने कहा कि मैं अपने तपोबल से तुम्हें अपनी हथेली पर उठाकर ले जाऊंगा। तब गोवर्धन पर्वत ऋषि के साथ चलने के लिए सहमत हो गए। रास्ते में ब्रज आया, उसे देखकर गोवर्धन की पूर्वस्मृति जागृत हो गई और वह सोचने लगा कि भगवान श्रीकृष्ण राधाजी के साथ यहां आकर बाल्यकाल और किशोरकाल की बहुत सी लीलाएं करेंगे। यह सोचकर गोवर्धन पर्वत पुलस्त्य ऋषि के हाथों में और अधिक भारी हो गया। जिससे ऋषि को विश्राम करने की आवश्यकता महसूस हुई। इसके बाद ऋषि ने गोवर्धन पर्वत को ब्रज में रखकर विश्राम करने लगे। ऋषि ये बात भूल गए थे कि उन्हें गोवर्धन पर्वत को कहीं रखना नहीं है।

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कुछ देर बाद ऋषि पर्वत को वापस उठाने लगे लेकिन गोवर्धन ने कहा ऋषिवर अब मैं यहां से कहीं नहीं जा सकता। मैंने आपसे पहले ही आग्रह किया था कि आप मुझे जहां रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। तब पुलस्त्यजी उसे ले जाने की हठ करने लगे लेकिन गोवर्धन वहां से नहीं हिला।
तब ऋषि ने उसे श्राप दिया कि तुमने मेरे मनोरथ को पूर्ण नहीं होने दिया अत: आज से प्रतिदिन तिल-तिल कर तुम्हारा क्षरण होता जाएगा फिर एक दिन तुम पुर्णत: धरती में समाहित हो जाओगे। तभी से गोवर्धन पर्वत तिल-तिल करके धरती में समा रहा है। कलयुग के अंत तक यह धरती में पूरा समा जाएगा।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी समस्त कलाओं के साथ द्वापर में इसी पर्वत पर भक्तों को मुग्ध करने वाली कई लीलाएं की थी। इसी पर्वत को इन्द्र का मान मर्दन करने के लिए उन्होंने अपनी सबसे छोटी उंगली पर तीन दिनों तक उठा कर रखा था। इसीप्रकार सभी वृंदावन वासियों की रक्षा इंद्र के कोप से की थी।

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एक अन्य मान्यता के अनुसार त्रेता युग में श्रीराम और वानर सेना रावण की लंका तक जाने के लिए समुद्र पर रामसेतु बांध रहे थे। तब हनुमानजी गोवर्धन पर्वत को उत्तराखंड से ले जा रहे थे ताकि रामसेतु बांधने में इसका उपयोग किया जा सके। लेकिन तभी देववाणी हुई की रामसेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, यह सुनकर हनुमानजी ने इस पर्वत को ब्रज में ही स्थापित कर किया और स्वयं दक्षिण की ओर पुन: लौट आए।

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